Thursday, April 9, 2020

लॉक्ड डाउन

काम पे, ना जाने कितनी शामें बीतीं,
घर पर एक आराम भरी  शाम के इंतज़ार में;
कटती नहीं, वो ही शामें ,
अब अपने ही परिवार में।

वक़्त नहीं था कल,
ख़ुद के, पौधों को पानी देने का,
अब गमलों की भी गिनती,
होने लगी है, यार में।

माँ- बाप, भाई- बहन , पति-पत्नी, बच्चे,
रविवार के,जो मोहताज रह गए थे,
दरख़्वास्त है,
इन्हें धोका न दें,
बने रहें चार दिवार में।

कुछ हफ्ते की गयी, घरवालों की मदद,
वो प्यार, वो व्यव्हार,
ज़िन्दगी भर की होंगी ये यादें ,
इस अवसर को,यूँही ना जाने दें बेकार में।

नींद, सुख, चैन,
वो घर का ही खाना, घर पे ही खाना,
ना जाने क्या क्या खोया है,
ज़िन्दगी की तेज़ रफ़्तार में  ।

वो बचपन का सुकून,
वो ठहराव, वो धीरे धीरे बीतता दिन,
बहुत कुछ बटोरने का मौका है,
इस लॉक्ड डाउन के दरकार में।

No comments:

Post a Comment

मुझे कविता लिखना पसंद है… इन्हें कविता पढ़ना बिलकुल पसंद नहीं…. इसलिए अक्सर इनसे नाराज़ होकर इन्हीं की शिकायत… पन्नों में उतार देती हूँ… जान...