Thursday, December 25, 2025

घर


ये जो घर है मेरा,

सब कहते हैं—
ये किसी पराए का है;
इसकी दीवारें किसी और की,
छत भी किसी और की,
ये घर बस किराए का है!

पर इसकी चाबी,
कुछ वक़्त के लिए ही सही,
मुझे अपने घर-सा होने का एहसास दिलाती है।
यहीं, इसी घर में,
सुबह की पहली चाय
और शाम की आख़िरी चाय
दिल को रास आती है।

माना कि ये
कुछ रोज़ का ही ठिकाना है;
पर कैसे इसे अपना घर न कहूँ—
जिसके कोने-कोने को
मेरे बच्चे ने छाना है।

कमरे किसी और के हैं,
ये सपने किसी और के हैं,
पर पल रहे हैं मेरे भी सपने इसमें;
माना मकान किसी और का है।

और इस चारदीवारी के बाहर भी,
मैंने कुछ कमाया है;
अपने परिवार से दूर, इस अनजान शहर में…
एक और परिवार बनाया है!

फिर भी सब कहते हैं—
होना चाहिए, ख़ुद का एक घर;
पर मेरे लिए—
आज यहाँ है, कल जहाँ भी मेरी डगर है!
ख़ुद का हो या किराए का,
जहाँ मेरा परिवार है,
जहाँ मेरे दोस्त हैं।
मेरे लिए बस वही मेरा घर है!

No comments:

Post a Comment

घर

ये जो घर है मेरा, सब कहते हैं— ये किसी पराए का है; इसकी दीवारें किसी और की, छत भी किसी और की, ये घर बस किराए का है! पर इसकी चाबी, कुछ वक़्त ...