Tuesday, April 28, 2020

मेरी चाह-हत


कुछ थकान सी थी, थी माथे पे शिकन,
एक झड़प हो गयी थी, इसलिए दुखी था मेरा मन
बस तभी किसी ने, तेरा नाम पुकारा,
एक दोस्त ने तेरी तरफ किया इशारा;

और फिर देखते ही तुझे,
एक अजीब सा सुकून मिला,
और भूल चला मैं,
हर शिकवा गिला;

पर कभी कभी, समझ नहीं आता,
तेरा अंदाज़ ,
कभी मीठा, कभी फीका,
बदलता तेरा मिजाज ।

और जगह जगह बदलता
तेरा रवैया,
फिर भी तेरे बिना चलता नहीं,
मेरी गाड़ी का पहिया।

लत कह ले, या कह दे की तू कोई गलती है,
पर सच तो ये हैं,
तेरे बिना मेरा दिन नहीं चढ़ता,
ना शाम ढलती हैं।

बोहोत खूबसूरत लगती है तू,
गेहुंए से रंग में,
जाने कैसे घुल जाती है तू,
मेरे अपनों के संग में।

वैसे तो मुझे तेरी ज़रुरत,
हर वक़्त होती है,
पर जब घर पर मिलती है तू,
तेरी बात ही कुछ और होती है।

किसी और की गर्मी से,
जहाँ गरम खून होता है ,
तेरी गर्माहट ही सच्ची मोहोब्बत है,
तुझसे ही ज़िन्दगी में सुकून होता है।

जब भी तुझसे मिलने की बात होती है,
बस हाँ में ही, मेरी राय होती है।
अब उस एहसास को, कैसे बयान करुँ,
जब मेरे हाथों में, मेरी एक कप चाय होती है।




Thursday, April 9, 2020

लॉक्ड डाउन

काम पे, ना जाने कितनी शामें बीतीं,
घर पर एक आराम भरी  शाम के इंतज़ार में;
कटती नहीं, वो ही शामें ,
अब अपने ही परिवार में।

वक़्त नहीं था कल,
ख़ुद के, पौधों को पानी देने का,
अब गमलों की भी गिनती,
होने लगी है, यार में।

माँ- बाप, भाई- बहन , पति-पत्नी, बच्चे,
रविवार के,जो मोहताज रह गए थे,
दरख़्वास्त है,
इन्हें धोका न दें,
बने रहें चार दिवार में।

कुछ हफ्ते की गयी, घरवालों की मदद,
वो प्यार, वो व्यव्हार,
ज़िन्दगी भर की होंगी ये यादें ,
इस अवसर को,यूँही ना जाने दें बेकार में।

नींद, सुख, चैन,
वो घर का ही खाना, घर पे ही खाना,
ना जाने क्या क्या खोया है,
ज़िन्दगी की तेज़ रफ़्तार में  ।

वो बचपन का सुकून,
वो ठहराव, वो धीरे धीरे बीतता दिन,
बहुत कुछ बटोरने का मौका है,
इस लॉक्ड डाउन के दरकार में।

मुझे कविता लिखना पसंद है… इन्हें कविता पढ़ना बिलकुल पसंद नहीं…. इसलिए अक्सर इनसे नाराज़ होकर इन्हीं की शिकायत… पन्नों में उतार देती हूँ… जान...