सिलसिला इन्तज़ार का ख़तम ही नहीं होता,
कहते हैं जिसे शाम, उससे वास्ता ही नहीं होता;
चैन से एक घूँट चाय को तरसे,
वो सर्द की धूप में बैठे, बीते अरसे।
वो गलिया, वो पुलिया, वो गुड्डे, वो गुड़ियाँ,
वो घर-घर का खेल, वो टॉफ़ी की पन्नियां,
अब नहीं रहा वो हमारा वाला बचपन,
इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स को हो चूका है अर्पण।
अब एक आनन् फानन में ज़िन्दगी गुज़र रही है,
मानों आहिस्ता आहिस्ता हर रोज़ बिखर रही है,
एक उम्र निकाल दी, जिस वक़्त की तलाश में,
ना वो वक़्त आया, ना उसके आने की आस है।
चैन से एक घूँट चाय को तरसे,
वो सर्द की धूप में बैठे, बीते अरसे।
वो गलिया, वो पुलिया, वो गुड्डे, वो गुड़ियाँ,
वो घर-घर का खेल, वो टॉफ़ी की पन्नियां,
अब नहीं रहा वो हमारा वाला बचपन,
इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स को हो चूका है अर्पण।
अब एक आनन् फानन में ज़िन्दगी गुज़र रही है,
मानों आहिस्ता आहिस्ता हर रोज़ बिखर रही है,
एक उम्र निकाल दी, जिस वक़्त की तलाश में,
ना वो वक़्त आया, ना उसके आने की आस है।